बापू की प्रसंगिकता,एक लघु कथा

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ज्ञानेन्द्र मोहन खरे

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लघु कथा। कल यानी बुधवार को 2 अक्तूबर था। बापू और लाल बहादुर का अवतरण दिवस। घर में 2 अक्तूबर से पूर्व इसके प्रोग्राम को लेकर हलचल मची हुई थी। इस बात का निर्णय करना था कि झांकी में राजू को बापू की वेशभूषा पहननी है या लाल बहादुर की। दीदी का मत लाल बहादुर की भूमिका की वकालत कर रहा था।

जबकि अन्य सदस्य उसे बापू बनाने के लिए उत्सुक थे। राजू 10 वर्ष का मासूम बच्चा था। गोरा छरहरे बदन का कमल नयन वाला राजू कक्षा पाँच का छात्र था। चेहरा गोल मटोल और नाक पर ऐनक चढ़ी हुई थी। वर्तमान परिपेक्ष्य से अनभिज्ञ राजू इधर उधर ताक रहा था उसकी सारी उम्मीदें मम्मी पापा पर केंद्रित थी।

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पापा अपने कार्यों में मसरूफ़ थे और मम्मी बच्चों के साथ बाज़ार जाने की तैयारी कर रही थी। पापा ने पर्स निकाला तो ५०० रुपये का नोट में बापू की फ़ोटो देख बापू के आदर्शों में हुए बदलाव के बारे में सोचने लगे।एक समय था जब जनमानस बापू के आदर्शों और जीवन शैली को दैनिक जीवन में आत्मसात् करते थे।

सादा जीवन उच्च विचार की सोच से कार्य करते थे। ईमानदारी और पारदर्शिता चरम पर थी। जीवन संतोष पूर्ण और शांतिमय था। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने कभी नैतिकता की लक्ष्मण रेखा पार नहीं की। आज वही रुपये बापू का सम्मान बढ़ाने की बजाय भ्रष्टाचार का माध्यम बन गये है। जनमानस बेशर्मी से अपने कुकृत्य में बापू को शामिल कर रहा है। नैतिकता धरातल पर पहुँच चुकी है। बापू के आदर्श दरकिनार हो चुके है।

मैं क्या बनूँगा .. राजू के स्वर ने पापा को विचारों के झंझावात से बाहर निकाल दिया। बापू .. पापा के स्वर में दृढ़ निश्चय, उम्मीद और विश्वास था। और तुम्हें बापू का सौहद्र और भाईचारे का संदेश देना है। बापू की सीख की महत्ता प्रतिपादित करनी है। शायद नई पौध ही अब बापू की अस्तित्व को प्रासंगिक बना सके।

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