माँ ने आवाज़ दी अरे आलू के भजिये तो खाता जा,नहीं तो ठंडे हो जाएँगे 

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शीर्षक-अनाथ

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ज्ञानेंद्र मोहन खरे की कलम से

छुक छुक के साथ जैसे ही सीटी की आवाज सुनाई दी , काजू अपना मनपसंद कलेवा छोड़ बाहर की तरफ भागा। माँ ने आवाज़ दी – अरे आलू के भजिये तो खाता जा , नहीं तो ठंडे हो जाएँगे पर काजू तब तक माँ की नज़रों से ओझल हो चुका था। उसे दोस्तों के साथ रेलगाड़ी को देखना था। उसमे सवार लोगो को राम राम करना था। इतने सारे लोगो को ले जाती गाड़ी काजू को उत्साहित करती। वो हमेशा सोचता काश मैं भी रेलगाड़ी से दूर तक जाता। काजू के छोटे गाँव में रेल का स्टेशन नहीं था और सारी गाड़ियाँ बगैर फाटक की रेलवे पटरी से गुजरती थी। सारे बच्चे गाड़ी आई गाड़ी आई कर दौड़ लगा रहे थे।

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रेलवे पटरी तक पहुचने से पहले ही एक रौबदार आवाज़ ने दौड़ते बच्चों को रोक दिया। हाँफते बच्चों को समझ नहीं आ रहा था की वे रेलगाड़ी देखे या ख़ान चाचा को। ख़ान चाचा रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखाते थे। अधेड़ उम्र के चाचा का रौबदार व्यक्तित्व था। वो भारी आवाज़ में हिदायत दे रहे थे की कोई भी बच्चा पटरी के पास नहीं जाएगा। सारे बच्चे सहमे यंत्रवत रुक गए और ख़ान चाचा को देखने लगे पर काजू रेलगाड़ी को अपलक निहार रहा था।

उसे रेलगाड़ी रोमांचित करती थी। उसने कई सवारियों को नमस्ते भी किया। उसके अबोध मन में रेलगाड़ी को लेकर तरह तरह के सवाल उठ रहे थे पर ख़ान चाचा की घनी दाढ़ी मूँछों और बड़ी आँखों को देख अपनी जिज्ञासा पूरी करने की हिम्मत उसमें नहीं थी। रेलगाड़ी के जाते ही वो जल्दी घर की तरफ़ भागा ताकि समय पर पहुँच जाए नहीं तो आया आंटी निकल जाएगी और वह स्कूल नहीं जा पाएगा।

काजू शहर से दूर पहाड़ो की तलहटी में बसे छोटे से गाँव पुरनवा में रहता था। घर में माँ के अलावा दीदी और बापू थे। बापू सवेरे ही खेतों पर काम के लिए निकल जाते और देर शाम तक वापस लौटते। दीदी और माँ दिन भर मिट्टी के बर्तन बनाने में व्यस्त रहती। तीन वर्ष का काजू घर में सबका लाड़ला था और गाँव के प्रायमरी स्कूल में पढ़ने जाता था।

काजू का रेल में बैठने का बहुत मन करता था पर गाड़ी थी कि गाँव में रुकती ही नहीं थी। ऊपर से ख़ान चाचा रुतबा और नियम क़ानून। काजू को रेल पटरी तक जाने का रास्ता याद हो चुका था। आया आँटी रोज़ गाँव के सारे छोटे बच्चों को स्कूल ले जाती और दोपहर में वापस घर छोड़ती। तलहटी में गाँव होने से प्राकृतिक विपदा आती जाती रहती। पहाड़ों का पानी गाँव में आ जाना आम बात थी।

उस दिन अचानक मौसम ने करवट ली और तेज हवाओं के साथ घनघोर बारिश शुरू हो गई। स्कूल की छत उड़ गई और सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया। सारे स्कूल में अफरा तफरी का माहौल था। गाँव के लोगो का सब कुछ पास की सोना नदी में बह गया। अन्य बच्चों के साथ काजू भी बेघर हो गया और तेज जलप्रवाह में गोते लगाता गाँव से काफ़ी दूर निकल गया। उसने मारे डर के रोना शुरू कर दिया पर उसकी मदद को कोई नहीं आया।

काजू की जब आँखे खुली तो स्वयं को एक बड़े से हॉल में पाया। एक बूढा व्यक्ति जिसने सफेद कपड़े पहन रखे थे उसके पैरों में मालिश कर रहा था। उसे सब फादर कह पुकार रहे थे। काजू से उन्होंने प्यार से पूछा किस गाँव के रहने वाले हो पर काजू सही ढंग से नहीं बता सका। वह केवल ये बता सका कि उसके घर से थोड़ी दूर पर रेलगाड़ी जाती है।

पिता का नाम पूछने पर भी सिर्फ़ बापू बोलता रहा। फादर परेशान थे। काजू रुआँसा था उसकी आँखे डबडबा गई थी। हमेशा गुमसुम रहता , उसे घर की बहुत याद आ रही थी, खासकर माँ के हाथ के आलू भजिए और टमाटर की चटनी की। दीदी से रोज़ कहानी नहीं सुन पाना भी बहुत पीड़ा दायक था।

हालांकि फादर ने उसे भरपूर प्यार दिया पर माँ की कमी काजू को अक्सर रुलाती थी। अब तो फादर का घर यानी चर्च ही उसका घर था। चर्च का रखरखाव करना और मिशन स्कूल में पढ़ना उसकी दिनचर्या बन गई थी। समय के साथ काजू अब अठारह वर्ष का संजीदा नौजवान जॉन बन गया था। रेलगाड़ी के बारे में उसकी सारी जिज्ञासा खत्म हो चुकी थी। हर पल उसकी निगाहे माँ और अपनों को तलाशती रहती।

फादर की तबियत कई दिनों से नासाज़ थी और जॉन जी जान से उनकी तबियत का ध्यान रख रहा था। पर नियति के क्रूर हाथों ने एक बार फिर जॉन को अनाथ कर दिया था और वह बिल्कुल अकेला रह गया था। फादर दुनिया को अलविदा कर गए पर अंतिम समय में उन्होने जॉन को एक लॉकेट दिया जो वो बचपन में पहने था। फादर ने बताया की वो हिंदू है।

पर उसे पालने के लिए मज़बूरी में फादर ने उसे ईसाई नाम दिया। जॉन ने देखा तांबे के लॉकेट में माताजी की तस्वीर थी। हताश काजू को जीने का मकसद मिल गया था। वो रेलगाड़ी में बैठा और शुरू हुई माँ की तलाश। जॉन ने कई जगह तलाशा पर असफलता ही हाथ लगी। निराश जॉन वापस चर्च आ गया और चर्च के एनजीओ के कार्य में हाथ बटाने लगा।

एक दिन दूरदर्शन पर उसने तूफ़ान से भारी तबाही की खबरे सुनी। जॉन अपनी टीम के साथ मदद हेतु प्रभावित क्षेत्रों में चला गया। सेवा के दौरान उसे एक गाँव में बग़ैर फाटक की रेल की पटरी दिखाई पड़ी। सामने बच्चों का रेला आते देख बचपन की यादें मानो चलचित्र की भाँति ज़ेहन में अवतरित हो गई। वो भागा और पागलो की तरह ख़ान चाचा को तलाशने लगा पर कोई सुराग नहीं मिला।

थक हार कर जॉन वापस सहायता शिविर की तरफ़ चल पड़ा। रास्ते में लोग साइकिल रिक्शे में माता की तस्वीर लिए लोगों का हुजूम जयकारे लगा रहा था। जॉन ने माता जी की तस्वीर देखी तो ख़ुशी से झूम उठा क्योंकि यही तस्वीर फादर के दिए लॉकेट में थी। उसने तुरंत माता के दर पर जाने का निश्चय किया।

उम्मीद की छोटी किरण भी जीवन को उत्साहित करती है और जीने का सबब बन जाती है। वह मंदिर की तरफ़ भागा और माता के चरणों में माथा टेककर आशीर्वाद और चमत्कार की गुहार लगाई। गर्मी की अधिकता और थकान की वजह से सुधबुध भूल जॉन मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गया और पलक झपकते ही उसे नींद आ गई।उसकी मुट्ठी में माता का लॉकेट था।

पानी के छींटे पड़ने से जब आँखे खुली तो सामने एक वृद्धा को पाया। दुबला पतला कृषकाय शरीर, बिखरे हुए बाल , चेहरे पर झुर्रियाँ और पथरायी आँखें उसकी ग़रीबी बयान कर रही थी। जॉन बेसुध था और अनायास वह लॉकेट उसके हाथ से गिर गया। बुढ़ियाँ ने तुरंत वह लॉकेट उठा लिया और उसे ध्यान से देखने लगी।

उसकी आँखों में अजीब सी चमक थी। इसी समय जॉन को कोलाहल सुनाई दिया कि मारो इस बुढ़ियाँ को जो श्रद्धालुओं के गहने चुराती है। मंदिर में रह पाप कर्म में लिप्त है। इससे पहले कि जॉन कुछ कह पता किसी ने वृद्धा को धक्का दिया और वो सीढी में गिर बेहोश हो गई। लॉकेट अब भी उसकी मुट्ठी में था। जॉन उठ खड़ा हुआ और उत्तेजित भीड़ को शांत किया। ना जाने क्यों उसे वृद्धा नेक और भली लग रही थी।

उसने उसे उठाया और शिविर की तरफ़ चल पड़ा। तीन दिन सेवा करने के बाद वृद्धा को होश आया और वो बड़बड़ाने लगी बेटा काजू तू आ गया। कब से तेरा रास्ता देख रही थी बेटा। जॉन के शरीर में मानों करेंट दौड़ गया क्योंकि काजू उसी के बचपन का नाम था। वह पागलों की भाँति वृद्धा से लिपट गया और माँ माँ पुकार चीखने लगा। वृद्धा ने आँखे खोली, उसे इत्मीनान से उसे देखा और पुनः अचेत हो गई। उसका शरीर निष्प्राण हो चुका था पर उसके चेहरे पर अतिरेक आनन्द , सुकून और सन्तुष्टि के भाव थे।

जॉन एक बार फिर अनाथ हो गया था। उसे लोगों से मालूम चला कि लगभग १५ वर्ष पूर्व आए तूफ़ान में उस वृद्धा अपना सब कुछ खो दिया था। इस सदमे में उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। वो दिन रात मंदिर की सीढ़ियाँ साफ़ कर अपने बच्चे काजू के बारे में लोगो से पूछती रहती। कुछ लोग उस पर तरस खाते तो कुछ धिक्कारते और मारते। मंदिर का प्रसाद खाकर उसकी गुज़र बसर हो रही थी। शायद बेटे से मिलने के भरोसे ने उसे अब तक ज़िंदा रखा था। जॉन स्वयं को बहुत बेबस और लाचार महसूस कर रहा था।

उसकी मनः स्थिति में वैराग्य की अनुभूति हो रही थी। उसने “सर्व जन हिताय सर्व जन सुखाय” का प्रण लिया और जन साधारण की सेवा सुश्रुषा में जीवन गुज़ारने लगा, ठीक रेलगाड़ी की तरह जो अच्छा बुरा नहीं देखती और सारे मुसाफ़िरों को मंज़िल तक पहुँचा देती है और अनवरत चलती जाती है। उसे लगा कि शायद इसी में जीवन का सुकून है , जीवन की सार्थकता है।आज काजू जॉन अनाथ नहीं था क्योंकि सारे बेसहारे उसका परिवार थे।

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