राकेश कुमार(लेखक लोकराज के लोकनायक)
अभिव्यक्ति। विगत रात्रि नौ बजे मेरी नजर सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो पर चली गई. साक्षी के निर्मम हत्या का वीडियो.साहिल की दरिंदगी का वीडियो.मन रात भर दु:खी रहा. रातभर नींद बिल्कुल भी नहीं आई. मेरे मन में रात भर यह बात कौंधते रही कि क्या बेटी पैदा होना ही स्वयं में अपराध है?
क्या बितती है बेटियों के बाप पर, जब समाज में बेधड़क ऐसी घटनाएँ होती है? मैं भी एक बेटी का बाप हूँ. क्या समाज ऐसे दरिंदगी का मूक साक्षी बन देखता रहेगा, जैसा कि साक्षी की हत्या के दौरान दर्जनों नर-नारियों द्वारा देखा गया, वो बगैर किसी प्रतिरोध के.
होना तो ऐसा चाहिए था कि साहिल की दरिंदगी के दरम्यान मूक साक्षियों में प्रतिशोध की ज्वाला धधक जाना चाहिए था और बेटी साक्षी पर जिस तरह और जैसी बेरहमी,दरिंदगी और बेहयाई हुई थी,उसी वक्त संवेदनहीन लोगों की संवेदना जग जानी चाहिए थी और सामूहिक प्रतिरोध कर साहिल को पकड़ा जाता और वहीं उसी तरह का न्याय लोगों द्वारा उसी जगह दे दिया जाता. लेकिन नपुंसकों की भीड़(नर-नारी) मूक देखती रह गई?
शर्म करो समाज
साक्षी की हत्या और साक्ष्य साथ-साथ मिले हैं.इसमें अन्वेषण की केवल इतनी ही गुंजाइश है कि इसमें और कौन लोग शामिल हैं? दरिंदा साहिल को अविलंब और स्पीडी ट्रायल चलाकर फाँसी की सजा चौराहे पर दी जाए और उसका लाइव प्रसारण पुूरी दुनियाँ को दिखाई जाए ताकि बेटियों के प्रति बेरहमी करने वाले में खौफ पैदा हो जाए.
दंड के सिद्धांत का एक दर्शन यह भी कहता है कि दंड इसलिए दी जाती है ताकि आगे से समाज में अपराधियों में चेतावनी और खौफ़ पैदा किया जा सके. अरब देशों में ‘आँख के बदले आँख का दंड’ दर्शन के इसी सिद्धांत का मूल है. उ.प्र में योगी सरकार द्वारा अपराधियों पर सख्ती और प्रदेश में उसका दृष्टिगोचर प्रभाव दंड के इसी दर्शन का प्रतिफल है.
अब कुछ मानवाधिकारवादी दरिंदा साहिल के मानवाधिकारों और जीवन के अधिकार का बेसुरा राग कुछेक दिन बाद अलापते दिखेंगे. अरे! बेहुदों साक्षी समेत समस्त लड़कियों और नारियों के मानवाधिकार की चिंता करने की आवश्यकता है न कि साहिल दरिंदो की.
अभी कुछेक दिन पहले एक इस्लामिक स्कॉलर द्वारा लिखित उपन्यास पढ़ रहा था. उस मुस्लिम स्कॉलर ने उपन्यास में रेखांकित किया है कि अति कट्टरता और दरिंदगी उनके धर्म का हिस्सा है. यहाँ संभव है कि कलावे के छलावे में साक्षी दरिंदा साहिल के चक्कर में फंस गई हो.
वैसे, बेटी के बाप होने के नाते भारत की बेटियों से करबद्ध विनती है कि नाबालिग आयु में अपनी पढ़ाई पर पूरा ध्यान देकर सशक्त और आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करो. फैंटेसी वाली उम्र के दौर से निकलकर मैच्युरिटी वाली उम्र में आने पर स्वत: निर्णय की क्षमता में नीर-क्षीर पृथक् करने की क्षमता आ जाती है, वैसे हालात में जीवन साथी का चुनाव आपके विवेक का मसला हो जाता है और आप स्वत: सही-सटीक निर्णय लेने की स्थिति में आ जाते हो.