राकेश कुमार(लेखक – लोकराज के लोकनायक)
अभिव्यक्ति। कल सदर अस्पताल, औरंगाबाद में प्रसव वार्ड में एक तरफ किलकारियाँ गुंजने की खुशी थी, तो दूसरी तरफ असमंजस की स्थिति थी. एक सोलह साल की कुंवारी कन्या ने स्वस्थ बालक को जन्म दिया. समाज के ललाट पर चिन्ता की लकीरें खींच गईं. भृकुटी तन गईं. कन्या ने पाप किया, शहर में शोर मच गया. कैमरा लिये मीडियाकर्मी भी प्रत्यक्षदर्शी बनने की होड़ में शामिल हुए, किन्तु निजता और गोपनीयता के अधिकार और दुत्कार के डर से वहाँ जाकर भी सहमे रहे.
खैर, कन्या ने मुँह खोला. बड़ी बेबाकी से बोला, “हाँ, समाज की नज़र में पापी हूँ, किन्तु न तो मैं प्रेम के पवित्र रिश्ते को कलंकित करने के लिए धोखेबाज प्रेमी का नाम लेना चाहती हूँ और न ही अपने पाप का दण्ड बच्चे को देना चाहती हूँ.”
“मैंने बच्चे को जन्म दिया है. इसका पालन-पोषण बेहतर तरीके से करूंगी. इसमें उच्च संस्कार पल्लवित-पुष्पित करने का भरसक प्रयास करूंगी ताकि वह अपने जीवन काल में रिश्तों की पवित्रता का उच्च मानक तय कर सके.”
“दुनियाँ यह गर्व से कह सके कि पापी माँ के कोख से जन्मा यह बच्चा रिश्ते की पवित्रता का पराकाष्ठा है”, इस संदेश को स्थापित करने के लिए गर्व से समाज की लानत-मलानत और लांछणाओं को दरकिनार कर बच्चे को जन्म दिया है.
बात विद्यालय के दिनों की है. किशोर वय से गुजरता मन किसी प्रेमी के आकर्षण जाल में फंस गया. पहली मुलाकात किसी सार्वजनिक स्थल पर हुई थी. पहली नज़र में उसके लिए दिल धड़कने लगा. ऐसा महसूस हुआ जैसे सच्चा जीवन साथी मिल गया हो.नयनों की लुका-छिपी में हलचल तो उसके दिल में भी मचा था. दिल तो उसका भी धड़का था किन्तु तब क्या पता था कि धड़कन छलावे वाली थी.
अब प्रतिदिन उसकी प्रतीक्षा होती थी. वह बाइक से आता था. हमदोनों बाइक की सवारी पर दूर तलक निकल जाते थे.न विद्यालय की चिंता, न परिवार का भय क्योंकि किशोर वय का आकर्षण न तो समाज की चिंताओं-भय की चिंता करती है, न ही इसकाल में सही-गलत के निर्णय के नीर-क्षीर का चिंतन होता है. बस! आकर्षण के वश में मन प्यार की पींगे बढ़ाने को बेताब़ रहता है.
मुलाकात से मिलन, मिलन से आलिंगन और आलिंगन से शारीरिक गोते (शारीरिक संबंध) कुछ ही महीनों में लगने लगे. जैसे ही मेरा मासिक धर्म ठहर गया, वैसे ही मैंने इसकी सूचना प्रेमी को दी. उसने गर्भपात का दबाव बनाया किन्तु मैंने इसे प्रेम का प्रतिफल बताकर उसे मना कर दिया. उसने दूरी बढ़ाना शुरू कर दिया. फलाफल सामने है. मैं बेनामी पिता के पुत्र की पापी माँ बन गई.
समाज मुझे आजीवन सदैव पापी की नज़र से ही देखेगा किन्तु मैं तमाम ताना-लांछणाओं को सहते हुए भी बच्चे के बेहतर परवरिश का प्रयास करूंगी.
प्रेम के रिश्तों की पवित्रता का एकतरफा कद्र करते हुए बच्चे के पिता का नाम दिल में सदा के लिए संजोये रहूँगी.
“हाँ, मैं स्वयं संदेश बन चुकी हूँ, किशोरियों और लड़कियों समेत समस्त नारी जगत के लिए”.
किशोर वय में प्यार नहीं बल्कि आकर्षण के हिचकोले होते हैं और लड़के इस वय में (12-20 वर्ष की आयु) लड़कियों की भावनाओं से खेलकर वासना(सेक्स) की चाह की स्ंतुष्टि के फिराक में लग जाते हैं. .
“केवल शरीर की चाह कदापि मन और दिल की चाहत नहीं बन पाती है. आकर्षण में विवेक शून्य हो जाता है जबकि वास्तविक प्यार में नर-नारी का विवेक द्विगुणित हो जाता है. किशोर वय भावनाओं का घमर और चकाचौंध की चौकड़ी होती है जो वास्तविक प्यार की सिंधु में छद्म गोते लगाती है. वास्तविक प्यार में शारीरिक संबंध की परिणति केवल एक शर्त होती है जबकि आकर्षण में शारीरिक संबंध एक और मात्र शर्त होती है.”
..और आकर्षण का अंतिम परिणाम यही होता है जो मेरे साथ हुआ. कैरियर से लेकर कैरेक्टर तक सबकुछ दाँव पर लग जाती है. अब पाप के कोख से पुण्य के ‘प्रताप’ को पालती आजीवन समाज को सालती रहूँगी.