आजादी के इतने वर्ष बाद भी हम अधिकारियों के औपनिवेशिक असंवेदनशील मानसिकता से उबर नही सके,विशेष रिपोर्ट

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राकेश कुमार(लेखक – लोकराज के लोकनायक)

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अभिव्यक्ति। भगवान न करें कि किसी परिवार के किसी सदस्य की असामयिक मौत हो, लेकिन नियति के आगे चलता किसका है. असामयिक मौत के बाद परिवार पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ता है जो असहनीय होता है और परिवार को असहाय बना देता है.

असामयिक मौत की स्थिति में देश का औपनिवेशिक कानून और जिला पदाधिकारियों(DMs) का औपनिवेशिक असंवेदनशील मानसिकता परिवार के दु:ख-कष्ट-तकलीफ को और बढ़ा देता है. अब आपके मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि असामयिक मौत और औपनिवेशिक कानून और औपनिवेशिक मानसिकता के पोषक अधिकारियों का क्या संबंध हो सकता है? कहीं स्तंभकार बेवजह अपनी भड़ास को शब्द का आकार तो नहीं दे रहा है.

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तो सुनिये और जानिये

मानलीजिए यदि सायंकाल में किसी व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मौत या किसी घटना में मौत हो जाती है. कानूनी प्रक्रिया पूरी करने और शव परीक्षण(Post mortem) कराने की पुलिसिया प्रक्रिया पूरी करते-करते सायं छह बजे का वक्त पार कर चुका होता है, तब…..

तब की स्थिति पर विचार कीजिए. शव परीक्षण का औपनिवेशिक कानून कहता है कि रात्रि में पोस्ट मार्टम नहीं किया जा सकता है. अगर किया भी जाएगा तो डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की विशेष अनुमति से.

पहली स्थिति में परिजनों को शव के साथ शव परीक्षण गृह में पूरी रात्रि इंतजार और महिला परिजनों को घर में चित्कार के दौर से गुजरना पड़ता है क्योंकि सामने शव होता है.

दूसरी स्थिति और भी खतरनाक होता है. एक तो बहुतों को विशेष अनुमति से शव परीक्षण की जानकारी नहीं होती है और अगर जानकारी हो भी जाए तो और असहाय महसूस करने के अलावा परिजनों के समक्ष कोई चारा नहीं बचता है.यानी कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी जहां अधिकारियों को लोक सेवक कहा जाता है और उनके द्वारा लोक सेवा की शपथ भी ली जाती है को फोन करके अपनी परेशानी बताने का एक आम आदमी साहस नहीं कर पाता.आखिर क्यों,यह सोचने का विषय है.यानी लोक सेवकों के द्वारा लोक सेवा से दूरी बना ली गई है तभी तो गण और तंत्र के बीच एक गहरी खाई उत्पन्न हो गई है जिसे पाटने की जरूरत है.

अधिकांश औपनिवेशिक मानसिकता के पोषक अधिकांश असंवेदनशील डीएम(कुछेक सुहृदय और अपवाद भी डीएम भी हैं) तक या तो उनकी पहुँच नहीं होती या उन्हें डीएम साहेब को फोन करने की हिम्मत नहीं होती है बिना पैरवी-पगहा के.कुछ लोग कह सकते हैं कि रात्रि में शव परीक्षण विज्ञान सम्मत नहीं है. …तो विशेष अनुमति के बाद यह विज्ञान सम्मत कैसे हो जाता है?

सांसद ने संसद में उठाया था मामला

औरंगाबाद सांसद सुशील कुमार सिंह ने संसद में शव परीक्षण के अप्रासंगिक औपनिवेशिक कानून के मसले को उठाया था और इसमें संशोधन की माँग की है.

क्या हो आगे की राह

जब तक शव परीक्षण के कानून में संशोधन नहीं हो जाए, तबतक डीएम साहेब लोग को इस मामले में प्राप्त विशेषाधिकार का संवेदनशीलता के साथ प्रयोग करना चाहिए. इसके अलावा सम्मानित जनप्रतिनिधियों को भी इस कानून को प्रासंगिक बनाने के लिए सदन में आवाज बुलंद करना चाहिए. होना तो यह चाहिए कि सारे जिलाधिकारियो को जिला स्वास्थ्य समिति की बैठकों में स्पष्ट निर्देश जारी कर दिया जाना चाहिए कि शव का परीक्षण स्वत: ही बिना किसी आदेश प्राप्ति के अस्पतालों द्वारा कर दिया जाए.

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