आस्था के नाम पर ध्वनि प्रदूषण कहां तक जायज गंभीर रूप से चिंतन करने की है जरूरत

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                        राजेश मिश्रा 

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हमारे समाज में आस्था के नाम पर आधुनिक परिपेक्ष में ध्वनि प्रदूषण एक विकराल समस्या बन चुकी है। जो कि इससे निजात मिलने की फिलहाल कोई संभावना नहीं दिख रही है। किसी भी धर्म समुदाय के पर्व त्यौहार में अब तेज गति से डीजे बजानें की परंपरा सी हो गई है।यह एक बहुत बड़ी विकट समस्या बन चुकी है तेज गति से डीजे के आवाज से कई प्रकार के लोगों में समस्या उत्पन्न हो रही है।जिसमें प्रमुख रूप से चिड़चिड़ापन, आक्रामकता के अतिरिक्त उच्च रक्तचाप, तनाव, श्रवण शक्ति का ह्रास, नींद में गड़बड़ी और अन्य हानिकारक प्रभाव पैदा हो रहीं है।

इसके अलावा, तनाव और उच्च रक्तचाप स्वास्थ्य समस्याओं के प्रमुख हैं,जबकि कानों में समस्या याददाश्त खोना, अवसाद जैसे कई प्रकार के समस्याएं लोगों में उत्पन्न हो रही है। लेकिन आस्था के नाम पर लोगों के द्वारा इस पर कोई ठोस कदम अभी तक नहीं उठाए गए हैं। यह काफी चिंताजनक है।तीव्र ध्वनि से आसपास रह रहे लोगों के कान में पड़ती है और उनकी निद्रा भंग हो जाती है। इनमें बूढ़े, बच्चे व बीमार लोग भी होते हैं। देश के कानून भी तो कोई चीज है।जो सामान्य रूप से लागू होनी चाहिए।

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उसका पालन कड़ाई से होनी चाहिए हिंदूू धर्म में ईश्वर को अंतर्यामी कहा गया है। फिर भी शोर सराबा कहां तक जायज। लाउडस्पीकर बजाने की परंपरा अब लगभग खत्म हो चुकी है। उसके जगह अब तेज गति से डीजे बजाना ही लोगों के द्वारा जरूरी समझा जा रहा है।आधुनिक वर्ग के युवाओं को जरूर इस पर विचार करनी चाहिए  लिखने का मकसद किसी भी विशेष धर्म या जाति की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।लेकिन इससे होने वाले दुष्प्रभाव के बारे में लोगों को अवगत कराना है।

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