जन सहयोग की कमी के कारण महोत्सव मनोरंजन तक रह गए सीमित स्थानीय कलाकारों को भी नहीं मिल रहा मौका
औरंगाबाद।भगवान भास्कर की नगरी देव में 4 फरवरी से लेकर 6 फरवरी तक सूर्य महोत्सव का आयोजन होना है। पर्यटन विभाग तथा जिला प्रशासन द्वारा आयोजित इस महोत्सव को लेकर जो कार्यक्रम निर्धारित किए गए है उसको लेकर जिले के बुद्धिजीवी वर्ग ने चिंता व्यक्त की है। इसी उद्देश्य को लेकर गुरुवार के अपराह्न तीन बजे अधिवक्ता संघ में जनेश्वर विकास केंद्र के तत्वाधान में एक बैठक का आयोजन किया गया। बैठक की अध्यक्षता संस्था के अध्यक्ष
रामजी सिंह ने की। बैठक को संबोधित करते हुए संस्था के सचिव सिद्धेश्वर विद्यार्थी ने कहा कि औरंगाबाद की धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थलों की गरिमा को देश-विदेश में प्रचारित करने तथा स्थानीय सभ्यता, संस्कृति, कला एवं उत्पादों से परिचित कराने के उद्देश्य से वर्ष 1992 में देव महोत्सव की शुरुआत की गई थी। जन भागीदारी एवं सहयोग से यह महोत्सव 9 वर्षों तक अत्यधिक लोकप्रिय रहा। जिसके परिणाम स्वरुप 2001 में इसका अधिग्रहण जिला प्रशासन
तथा कला संस्कृति एवं पर्यटन विभाग द्वारा किया गया। इसी कड़ी में जिले में अभी कल 19 महोत्सव आयोजित हो रहे हैं। जिनमें देव, उमगा, देवकुंड, अंबे, गजना, पुनपुन, सोननद, राघव सूर्य मंदिर महोत्सव धुंधवा और जिला महोत्सव आदि अब सरकारी महोत्सव हो चुके हैं। मगर दुर्भाग्य की बात है कि ये सभी महोत्सव महज मनोरंजन तक सिमट कर रह गए हैं। इससे ना तो स्थानीय कला, संस्कृति, पर्यटन और उत्पादों को कोई प्रोत्साहन मिल पाता है और
न ही इससे कोई उद्देश्य सिद्ध हो पा रहा है।महोत्सव सिर्फ और सिर्फ निरर्थक और महंगे तमाशे बनकर रह गए हैं। स्थिति यह है कि आयोजनों से संबंधित स्थलों की ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व को उजागर करने हेतु संगोष्ठी और स्मारिका का प्रकाशन नहीं किया जा रहा है। स्थानीय कलाकारों को भी उचित मंच और प्राथमिकता नहीं मिल रही है। उन्होंने बताया कि महोत्सव के रूपरेखा को लेकर पूर्व की आयोजन समितियां को शामिल नहीं किया जाता है।
जिससे अनुभव और पारंपरिक ज्ञान का अभाव रहता है। जन सहयोग की कमी के कारण महोत्सव मनोरंजन तक सीमित रह गए हैं। जिसके कारण इस आयोजन से जिले के साहित्यविद, बुद्धिजीवी दूर होते चले जा रहे हैं। बुद्धिजीवियों ने कहा कि यदि पूर्व की समितियों को महोत्सव आयोजन में शामिल कर समितियों के सुझावों को प्राथमिकता दी जाए, स्थलों की ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्वों को उजागर करने हेतु संगोष्ठी और स्मारिका का प्रकाशन
अनिवार्य किया जाए, स्थानीय कलाकारों और छात्र-छात्राओं को प्राथमिकता दी जाए, जन सहयोग से आयोजित होने वाली परंपराओं को प्राथमिकता दी जाए तो महोत्सवों का आयोजन सार्थक हो सकते हैं। बैठक के बाद बुद्धिजीवियों ने जिलाधिकारी को इससे संबंधित ज्ञापन भी सौंपा है और इस पर विचार करने की मांग की भी की है।