ज्ञानेंद्र मोहन खरे(साहित्यविद)
मूर्तिकारी अदभुत कला है और मूर्तिकार ग़रीबी में जीवन यापन करने वाला आम नागरिक जिसके पास मूर्ति के चेहरे में भावों का समावेश करने का असाधारण हुनर और कौशल होता है। यह कला वास्तव में अद्भुत और अकल्पनीय है। मूर्ति चाहे अभीष्ट की हो या साज सज्जा की वस्तु , चाहे पूजा स्थल में विराजमान हो या बैठक/शयन कक्ष में, सदैव श्रद्धा, विश्वास, मनन और पूजन का प्रतीक रही है।
ज्ञानू स्थानीय न्यूज़ चैनल में खोजी संवाददाता थे और न्यूज़ चैनल
से प्रसारित बहुप्रशंसित साप्ताहिक धारावाहिक अनहोनी के एंकर।
राजस्थान पत्रिका में मूर्ति कला प्रदर्शनी का इश्तहार देखा तो ज्ञानू रोमांचित थे। इंसान बेजान मूर्ति को देख ,क्यों भाव विव्हल और नतमस्तक हो जाता है — ज्ञानू के लिये हमेशा से कौतूहल का संदर्भ रहा है।वो कई बार सोचते कि काश मूर्ति बोल सकती तो उनकी सारी शंकाओं का समाधान हो जाता है। मूर्तिकार बेजान पाषाण में जीवन के बहुरंगी आयाम का सृजन कैसे करता है ?
जब उन्होंने प्रदर्शनी में स्थापित सुंदरी मूर्ति के आकर्षण के बारे में पढ़ा तो इच्छा और बलवती हो गयी थी। अपने गुलाबी शहर में प्रदर्शनी लगने से वहाँ जाने में कोई दिक़्क़त नहीं थी। अगले दिन कार्यालय में यथाशीघ्र कार्य संपन्न कर ज्ञानू ने प्रदर्शनी देखने के लिए रूखसत किया। हाल में भीड़भाड़ का माहौल था।
चारों तरफ़ अभिजात्य वर्ग के लोग नज़र आ रहे थे जिनका हर अन्दाज़ नज़ाकत भरा था। ज्ञानू ने हाल में सरसरी नज़र घुमाई और एक किनारें से प्रदर्शनी का अवलोकन करना चालू किया। एक से बढ़कर एक बेजोड़ कलाकृतियाँ थी। मानों अभी सजीव हो जायेंगी।
रोमांच अतिरेक था ऊपर से हल्की सुमधुर बांसुरी की ध्वनि वातावरण को मनमोहक बना रही था। जैसे जैसे ज्ञानू अग्रसर हो रहे थे मदहोशी का आलम बढ़ता जा रहा था। पर ज्ञानू की बेसब्र नज़रें बहुचर्चित सुंदरी की मूर्ति के दीदार के लिए लालायित थे। कहीं बिक तो नहीं गयी ? ज्ञानू का मन आशंकित था। चंचल मन में कई सम्भावनाएँ हिलोरे मार रही थी।
भाईसाहेब वो सुंदरी वाली मूर्ति कहा है—ज्ञानू ने हाल में उपस्थित सुरक्षाकर्मी से पूछा।
सीधे जाकर बायें मुड़ जाना , ठीक सामने सुंदरी जी स्वागोत्सुक नज़र आयेंगी – कर्मी ने मुस्कराते हुए शरारती अन्दाज़ में कहा।
ज्ञानू तेज कदमों से सुंदरी की तरफ़ बढ़ चले। सामने लोगो का मजमा लगा था। ज्ञानू जी ने देखा कि तक़रीबन ५ फीट ऊँची बेजोड़ नारी काया मानों स्वर्ग से अवतरित अप्सरा,० विराजमान थी। उसका चेहरा झीनी सी झिलमिली ओढ़नी से ढँका हुआ था। सोलह शृंगार किए अप्रतिम सौंदर्य और सादगी से परिपूर्ण गरिमामयी प्रतिमा की छबि अनूठी थी। ज्ञानू मंत्रमुग्ध थे और मन ही मन मूर्तिकार की कला की दाद दे रहे थे। उनका अवचेतन मन विस्मय लोक में विचरण कर आनंदित हो रहा था।
साहेब जी प्रदर्शनी के बंद होने का समय हो गया है- सुरक्षा कर्मी की आवाज़ ने ज्ञानू को वापस यथार्थ के धरातल पर वापस ला दिया।
नजरें घुमाई तो प्रदर्शनी कक्ष में इक्का दुक्का जनमानस ही नज़र आ रहे थे। अचानक ज्ञानू को कराहने की आवाज़ आयी। अचंभित ज्ञानू इधर उधर ताकने लगे पर कुछ पता नहीं चला। शायद मन का भ्रम है सोच ज्ञानू बाहर जाने के लिए मुड़े कि पुनः वही दर्द भरी आवाज़ सुनाई दी।
कौन है — सहमे ज्ञानू ने आवाज़ लगाई
मैं पाषाण हूँ आवाज़ आई
ज्ञानू सहम, टाँगो में कंपन हो रहा था। वो सुंदरी की प्रतिमा को निहारने लगे जहां से आवाज़ मुखर हो रही थी।
क्या हुआ . आप दिखाई क्यों नहीं देते- ज्ञानू ने हकलाते हुए पूछा। उसे लगा कि उसका कंठ अवरुद्ध हो गया है।
मुझे असीम वेदना हो रही रही है। मूर्तिकार की छेनी की मार ने जगह जगह घाव बना दिये है। उसने सुंदरी का रूप तराशने के लिए मुझे अनगिनत यातनाएँ दी है। मेरे तनमन को विक्षिप्त कर दिया है।
आज सभी लोग सुंदरी के रूप पर फ़िदा है और मूर्तिकार की कला के क़ायल, पर मेरे उत्सर्ग का किसी को इल्म तक नहीं है।
सुंदरी का सच जान ज्ञानू स्तब्ध थे। पाषाण की व्यथा ने उन्हें हृदय के अंतःस्थल तक झकझोर के रख दिया था। पाषाण की भयावह और द्रवित करने वाली सच्चाई चौंका रही थी। पाषाण के हर रूप में ढल जाने की मनोवृत्ति अनुकरणीय थी। समर्पण और बलिदान की पराकाष्ठा थी। अपना वजूद खो दूसरे को पहचान दिलाने की सीख थी। ज्ञानू यथाशीघ्र कर्मस्थल पर जा रहे थे क्योंकि उनकी लेखनी पाषाण के बलिदान की महिमा प्रतिपादित करने के लिए तैयार थी।